तटीय प्रदेशों में निम्नलिखित अपरदनात्मक स्थलाकृतिक आकृतियों का विकास होता
(i) तटीय भृगु एवं गुफाएँ (Seacliff and Caves) लहरों द्वारा तटीय भागों की चट्टानों पर निरन्तर प्रहार एवं कटाव के कारण तट के ढाल भागों का ढाल और तेज होता जाता है। इससे वहाँ खड़े ढाल वाली चट्टानें बनती हैं। इन्हें हो तटीय भृगु कहते हैं, किन्तु जब ऐसा तटीय कटाव बराबर जारी रहता है तो तटीय भृगु आगे की ओर झुके हुए या लटकते हुए हुए बनते जाते हैं क्योंकि लहरें भृगु के नीचे के भाग को काटकर छोटी-छोटी गुफाएँ बनाने लगती हैं। ऐसे लटकते हुए भृगु समुद्र-तटीय भागों की खास विशेषता है। जब लटकते हुए भृगु अधिक गहरे कटाव करते हैं तो वहाँ गहरी गुफा बन जाती है।
(ii) तटीय मेहराब (Costal Arches) कई बार तट के निकट की उभरी हुई चट्टानों का निचला भाग लहरों के निरन्तर प्रहार एवं कटाव से टूटता जाता है। ऐसे स्थान पर पहले गुफा बनती है। कुछ समय पश्चात् वहाँ पर चट्टान में आर-पार छेद बनकर वह छेद बड़ा हो जाता है। इस प्रकार वहाँ पर बचा हुआ ऊपरी भाग प्राकृतिक मेहराब या पूलबन जाता है।
(iii) तटीय स्तम्भ (Coastal Stacks) जब तट पर गुफा एवं मेहराब जैसी आकृति बन जाती है तब लहरों के बढ़ते कटाव के कार्यों से मेहराब का ऊपरी हिस्सा टूट जाता है। इससे वहाँ स्तम्भ या खम्भा जैसी आकृति बची रहती है।
(iv) घमि छिद्र या उगलते छिद्र (Blowing Holes) जिस तट पर लटकते भृगु एवं गुफाएँ बनी हुई होती हैं, उनमें दीर्घ ज्वार या लघु ज्वार के समय तेजी से पानी भरता जाता है। इससे भीतर की हवा भीतर ही रहकर चट्टान की दीवारों पर तेजी से दबाव डालती है। इसके प्रभाव से चट्टानों की दरारों के सहारे या कमजोर भागों में वायु छेद बनाकर वहाँ से तेज गति और तेज आवाज से बाहर निकलती है। इसके साथ कई बार पानी उगलता हुआ बाहर निकल सकता है। धीरे-धीरे ऐसे छिद्र बड़े होते जाते हैं। ग्रेट ब्रिटेन के श्वेत द्वीप (White Island) पर ऐसे घमि छिद्र पाये जाते हैं।
(v) तटीय खाड़ियाँ (Creeks) जब लटकते भृगु के नीचे बहुत अधिक या गहरे कटाव होने लगते हैं तो भृगु का आगे का भाग भी टूट सकता है। इसी भाँति जब धमि छिद्र बड़े होते जाते हैं, तब कभी गुफा की ऊपरी छत गिर सकती है। इसी से वहाँ छोटी खाड़ी या ज्यो जैसी आकृति बनती जाती है। स्कॉटलैण्ड, नॉर्वे एवं स्वीडन के तट पर ऐसी आकृतियाँ पाई जाती हैं। परन्तु ऊलरिज तथा गर्मन के अनुसार सर्क अपने स्थान पर स्थिर होते हैं चोटियों का पतला तथा चुकीला होना सर्क के पीछे हटने से नहीं, वरन् अपक्षय की सामान्य क्रिया द्वारा होता है। इस मत को जरा भी समर्थन प्राप्त नहीं है।
(4) हार्न या गिरि श्रृंग (Horn) जब किसी पहाड़ी के पाश्वों पर कई सर्क बन जाते हैं तथा जब निरन्तर अपघर्षण द्वारा ये पीछे हटते जाते हैं तो उनके मिल जाने पर एक पिरामिड के आकार की चोटी को हार्न या गिरिंग कहते हैं। स्विटजरलैंड में आल्पस पर्वत पर स्थित मैटर हार्न इसका प्रमुख उदाहरण है। जब एक पहाड़ी के दोनों ओर सर्क विकसित होकर मिल जाते हैं तो एक गड्ढ़ा बन जाता है। इस तरह के मार्ग को कॉल या हिमानी दर्रा कहते हैं। आल्पस पर्वत में हिमानी द्वारा निर्मित अनेक कॉल मिलते हैं।
(5) नुनाटक (Nunatak) विस्तृत हिम क्षेत्र या हिमनदों के बीच ऊँचे उठे दीले, जो
कि चारों तरफ से हिम से घिरे होते हैं, नुनाटक कहे जाते हैं। नुनाटक हिमक्षेत्र या हिमनद की विशाल हिमराशि के बीच बिखरे हुये द्वीप के समान लगते हैं। इसी कारण से नुनाटक को हिमान्तर द्वीप भी कहते हैं। हिमनद द्वारा क्षैतिज अपरदन के फलस्वरूप तथा तुषार-क्रिया तथा घर्षण द्वारा अपरदित होकर नुनाटक अवशेष शैल मात्र ही रह जाता है। कभी-कभी घर्षण तथा अपरदन के कारण नुनाटक घिसकर पूर्णतया विलीन हो जाता है।
(6) श्रृंगपुच्छ (Crag and Tail) जब किसी हिम प्रभावित स्थल भाग में बेसाल्ट या ज्वालामुखी प्लग ऊपर गाँठ के रूप में निकला रहता है तो जिस ओर से हिमनद आता है उस ओर प्लग या बेसाल्ट के उठे भाग पर स्थित मुलायम मिट्टी का हिमनद द्वारा अपरदन हो जाता है तथा ढाल ऊबड़-खाबड़ तथा खड़ा हो जाता है। ढाल से होकर हिमनद जब बेसाल्ट के उठे भाग या प्लग को पार करके दूसरी ओर उतरने लगता है तो प्लग के साथ संलग्न दूसरी ओर की मुलायम शैल का कम अपरदन होता है, क्योंकि हिमनद द्वारा यहाँ पर शैल को संरक्षण प्राप्त होता है। इस कारण दूसरी ओर का ढाल हल्का तथा मन्द हो जाता है। यह हल्का ढाल दूर तक विस्तृत रहता है तथा देखने में बेसाल्ट की ग्रीवा या श्रृंग के पीछे संलग्न एक लम्बी पूँछ के समान लगता है। इस तरह बेसाल्ट या प्लग वाले ऊँचे भाग को श्रृंग तथा उसके पीछे वाले भाग को पूँछ कहते हैं।
(7) भेड़, पीठ शैल या रॉश मुटोने (Roche Montonnee) हिमानीकृत क्षेत्रों में कुछ ऐसी हिम-अपरदित शिलायें होती हैं जो कि दूर से देखने पर ऐसी प्रतीत होती हैं मानों कोमल ऊन वाली भेड़े बैठी हों। सन् 1804 ई में डी सासर महोदय ने इस प्रकार के टीलों को रॉश मुटाने नाम प्रदान किया। हिन्दी में इसे मेष शिलां या भेड़ पीठ शैल कहते हैं। हिमनद जब आगे बढ़ता है तो उसके मार्ग में कभी-कभी कठोर चट्टानों के टीले पड़ जाते हैं। ये टीले हिमनद के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करने का प्रयास करते हैं। परन्तु हिमनद अपने अपघर्षण के द्वारा इन टीलों को अपरदित करके अपना मार्ग बना लेता है। इन टोलों पर जिस ओर से हिमनद बढ़ते हैं, उस ओर हिमनद के अपघर्षण द्वारा टौले का भाग घर्षित होकर चिकना तथा हल्के ढाल वाला हो जाता है। परिणामस्वरूप हल्के ढाल के सहारे हिमनद आसानी से टीले पर चढ़ जाता है। परन्तु दूसरी ओर उतरते समय हिमनद द्वारा अपरदन कम होता है। इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तरते समय हिम तथा शिलाखण्ड का सम्पर्क शैल से बहुत ही कम रह जाता है।