हवा या पवन का अपरदन कार्य शुष्क या मरुस्थलीय प्रदेशों में विशेष महत्त्वपूर्ण रहता है। ऐसा कार्य हवा की गति, हवा में बालू की मात्रा, बालू के कणों का आकार, चट्टाने की कठोरता एवं जलवायु की प्रकृति पर निर्भर करता है। हवा निम्न प्रकार से अपने प्रभावित प्रदेशों में अपरदन कार्य करती है:
(अ) अपघर्षण (Abrasion) बहती हुई वायु में महान शक्ति होती है। उसके साथ बालू या रेत के कण भी बहते हैं। ये कण सतह से रगड खाकर बहते हैं। इससे प्रभावित धरातल बराबर घिस घिसकर कटते रहते हैं। इस प्रक्रिया में मुलायम चट्टानें शीघ्रता से घिसती हैं। बबी हुई कठोर चट्टानें एवं उनकी छाया में सुरक्षित मुलायम चट्टानें मिलकर अनेक प्रकार की आकृतियाँ भी बनाती हैं।
(ब) सन्निघर्षण (Attrition) पवन के साथ अनेक आकार व प्रकार के बालू या रेत के कण बहते हैं। ये कण आपस में रगड़ खाकर गोल बनते जाते हैं व छोटे होते जाते हैं। इससे इनकी क्षमता घटती जाती है। मरुस्थलीय प्रदेश में बालू या रेत का जो विस्तार पाया जाता है. इसका मुख्य कारण ऐसी ही कटाव की क्रिया है। चूंकि इससे वायु को अपरदन क्षमता घटती है, इसलिए इसे साधन नाश क्रिया भी कहते हैं।
(स) अपवाहन या उठाव (Deflation) ‘डिफ्लेशन’ लैटिन भाषा के शब्द ‘डिफ्लेयर’ से बना है जिसका आशय ‘बहा ले जाना’ होता है। बहती हवा के मार्ग में जो भी रेत, बालू के कण मिलते हैं, हवा उन्हें बहाकर ले जाती है। हवा द्वारा बालू के कणों को उड़ाकर ले जाने की क्षमता हवा की गति, पहले से हवा में उड़ाकर ले जाना ही बहाव कार्य है। इससे अपरदन क्रिया की विशेष रूप से क्षमता भी बढ़ती जाती है। इसी के द्वारा मार्ग की चट्टानों में छिद्र, धारियों तथा अन्ततः दरारें पड़ती जाती हैं। इसी विधि से तेज व चक्करदार हवा चलने पर चट्टानों में व अन्य प्रकार के घरातल पर गड्ढे पड़ जाते हैं। मिस्त्र और सऊदी अरब में ऐसे अनेक बड़े-बड़े गड्ढे पाये जाते हैं। मित्र का अल फय्यूम एवं अलकात्तारा ऐसे ही गड्ढे हैं। पवन के उपर्युक्त प्रकार से होने वाले अपरदन से मुख्यतः अग्र प्रकार की भू-आकृतियाँ अथवा स्थलाकृतियाँ बनती हैं :
(i) तिपहल शिलाखण्ड (Dreikanter) पत्थर के ये टुकड़े ढलानों पर विविध आकारों में एकत्रित होते हैं। इनके किनारे व कोने नुकीले होते हैं। ये तीन पहलू वाले या चार नुकीले पहल वाले होते हैं। ये अपक्षय द्वारा विखण्डन क्रिया से बनते हैं। ये सहारा मरुस्थल में अधिक मिलते हैं।
(ii) गारा या छत्रक (Gara or Mushroom) इसकी ऊपरी आकृति छत्रक जैसी होती है और निचला सिरा गर्दन जैसा सँकरा होता है। अफ्रीकी मरुस्थल सहारा में इन्हें गारा कहते हैं। इनके निर्माण का मुख्य कारण पवन है क्योंकि भूमि से एक दो मीटर की ऊँचाई तक से अधिक बालू कण पवन में बहते रहते हैं। अतः वह यहाँ सबसे अधिक कटाव भी करते हैं। अधिक ऊँचाई पर बालू के कण कम व महीन अधिक मिलते हैं, इसी भाँति धरातल के निकट बड़े कण रगड़ खा-खाकर बहते रहते हैं। इस कारण इनमें काटने की शक्ति कम रहती है। लम्बे समय बाद ऐसे गारा का निचला भाग या ग्रीवा खण्ड नष्ट भी हो सकता है।
(iii) जालीदार शिला (Stone Lattice) जिन उभरी हुई चट्टानों की संरचना या कठोरता में अन्तर पाया जाता है उनमें मुलायम चट्टानी भाग शीघ्र घिस जाते हैं और वहाँ गड्ढे पड़ने के पश्चात् जालीदार छिद्र पड़ते जाते हैं। कभी-कभी वर्षा होने पर यहाँ रासायनिक अपरदन होने से छेद बड़े होते जाते हैं। रॉकी पर्वतीय क्षेत्र में वालुका प्रस्तर की जालीदार शिलाओं के दृश्य दिखाई दे जाते हैं।
(iv) भू-स्तम्भ (Demoiselles) शुष्क व अर्द्धशुष्क प्रदेश में कभी-कभी कोमल चट्टान पर कठोर चट्टान या पत्थरों की परत फैली होती है। कालान्तर में भौतिक भू-अपक्षय के प्रभाव से इसमें दरारें पड़ने से उसके नीचे की मुलायम मिट्टी भी हटती जाती है। इससे कठोर पत्चुर से ढके भाग सुरक्षित रहते हैं। इस कारण वहाँ खम्भे या स्तम्भ जैसी आकृति बनती जाती है। जब भी ऊपरी चट्टान हट जाती या खण्डित हो जाती है तो भू-स्तम्भ नष्ट होने लगते हैं। दूर से देखने पर ये स्तम्भू किसी कारखने की चिमनी की तरह दिखते हैं।
(v) ज्यूगेन (Zeugen) प्रायः परतदार चट्टानों में जब कठोर व मुलायम चट्टान की क्षैतिज संरचना एकान्तर क्रम पर होती है तो कठोर चट्टानों में धीरे-धीरे सन्धि या जोड़ विकसित होने के साथ-साथ वह हवा की सन्निधर्षण क्रिया से चौड़े होते जाते हैं। थोड़े समय पश्चात् नीचे की मुलायम चट्टान में तेजी से कटाब होने लगता है। धीरे-धीरे इनका विकास होने से यहाँ सँकरी घाटी बनती जाती है। सहारा में ऐसी चट्टानों को ‘ज्यूगेन’ कहकर सम्बोधित किया जाता है।
(vi) यारडांग (Vardang) जहाँ ज्यूगेन में क्षैतिज संरचना होती है वहीं यारडांग में कठोर चट्टानों के मात्र ऊपरी भाग ही नुकीले बन पाते हैं। ऐसी आकृतियाँ कठोर चट्टानों को होती हैं एवं नुकीले शीर्ष वाली चट्टानें पवनों के समान्तर बनती हैं। अतः ऐसी आकृति बनने का मुख्य कारण पवन की सन्निघर्षण किया है।
(vii) इन्सेलबर्ग (Inselberg) या द्विपात्र गिरि मरुस्थलीय प्रदेश में अपरदन की अन्तिम दशा में भी कुछ कठोर चट्टानी गुम्बद बचे रहते हैं। रेत के समुद्र में इन्हें द्वीप की भाँति देखा जा सकता है। इनमें चट्टानी संरचना सामान्यतः लम्बवत् होती है। ऐसे इन्सेलबर्ग दक्षिणी अफ्रीका एवं सहारा में अधिक पाये जाते हैं। दक्षिणी अफ्रीका की तीन बहनें इन्सेल-बर्ग वहाँ के मरुस्थलीय प्रदेश का विशेष उदाहरण है।
(viii) पवन गर्त (Blow Out) रेतीले भागों में वायु के तेज प्रवाह एवं बवण्डर चलने से रेत का विशाल भाग उड़कर बह जाने से वहाँ बड़े-बड़े गड्ढे या गर्त बन जाते हैं। मिस्त्र में अलकात्तारा ऐसा ही विशाल गर्त है। कुछ गर्त तो समुद्र तल से नीचे तक कट-छंटकर गहरे हो जाते हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका, कालाहारी तथा मंगोलिया में ऐसे पवन गर्त अधिक मिलते हैं।