अपरदन चक्र के संदर्भ में एल.सी. किंग की संकल्पना की विवेचना कीजिए।

पर्वतों से घिरे हुए बंद बेसिनों में ही डेविस का शुष्क चक्र लागू होता है। लेकिन

संसार के विभिन्न मरुस्थलों में इससे भिन्न स्थलाकृक्ति मिलती है जहाँ डेविस का शुष्क चक्र विफल हो जाता है, क्योंकि इन प्रदेशों में पैडीमेन्टेशन की प्रक्रियाएँ अपरदन चक्र के पूर्ण करने में महान योग देती हैं। अतः दक्षिणी अफ्रीकी धूआक्तिविज्ञानी एल०सी० किंग ने अफ्रीका के मरुस्थलों, अर्द्धमरुस्थलों एवं सवाना प्रदेशों के लिए सन् 1948 ई में पूर्णतया भिन्न अपरदन चक्र का प्रतिपादन किया है जो डेविस के अपरदन चक्र से पूर्णतया भिन्न और नवीन अवधारणा है। एल. सी. किंग की भूआक्तिविज्ञान को यह अभूतपूर्व देन भूआकृतिविज्ञान के इतिहास में डेविस के अपरदन चक्र अवधारणा के समान ही सदैव याद रखी जाएगी और आने वाली पीढ़ियाँ किंग को इस बेजोड देन के कारण हमेशा श्रद्धा से याद रखेंगी।

किंग ने अफ्रीका की दृष्य भूमि का विस्तारपूर्वक अवलोकन तथा गहन अध्ययन किया और इस परिणाम पर पहुँचा कि अफ्रीका तथा अन्य महाद्वीपों के उष्ण मरुस्थलों में उपस्थित अपरदित धरातलों को डेविस के अपरदन चक्र के आधार पर नहीं समझा जा सकता, क्योंकि इन भागों में चक्र का जन्म ब्लाक भ्रंशन से नहीं, (जैसा डेविस मानता है) प्रत्युत, पूर्वास्थित समतल धरातलों के उत्थान के फलस्वरूप हुआ हैं। इस संबंध में यहाँ यह कहना अनुचित न होगा कि अफ्रीका का अधिकांश भाग पर्याप्त समय से गलन एवं भ्रंशन से मुक्त रहा है। सच तो यह है कि अफ्रीका का अधिकांश भाग प्राचीन क्रिस्टली आग्नेय (ग्रेनाइट) एवं कायांतरित शैलों (नाइस) से निर्मित है जो मध्यजीवी महाकल्प तथा टरशरी कल्प में अनेक अपरदन प्रक्रमों का शिकार हुई हैं।

किंग के पदस्थली-भवन चक्र में कगार निर्वतन (Scarp retreat) तथा पैडीमेंटीकरण (Pedimentation) पर अधिक बल दिया गया है, जबकि डेविस ने जलविभाजक के अपक्षय द्वारा निम्निकरण (Lowering) पर अत्यधिक बल दिया है जो किंग अनुचित मानता है। कि का विचार है कि डेविस की सामान्य अपरदन चक्र अवधारणा का सबसे बड़ा दोष इसकी दूसरो अवस्था अर्थात् प्रौढ़ावस्था में निहित है जिसमें घाटियों को पृथक करने वाली श्रेणियों के ढालों के समांतर निवर्तन (Parallel retreat) का उल्लेख भी नहीं किया गया और यह क्रिया समस्त चक्र का प्रमुख अंग ही नहीं, प्रत्युत चक्र का प्राण है। किसी चक्र की पूर्ति में ढालों का समांतर निवर्तनक प्रमुख क्रिया है जो डेविस के चक्र में अनुपस्थित है। इसके विपरीत डेविस ने अपक्षय द्वारा नेि वाले प्रदेश के निम्निकरण पर आवश्यकता से अधिक बल दिया है। इन सब त्रुटियों को उते हुए एल सी किंग ने सन् 1948 ई. में अपरदन चक्र की नवीन अवध या को जन्म दिया जिसे पदस्थलीभवन चक्र (Cycle of pediplanation) के नाम से पुकारा जाता है और भूआकृक्तिविज्ञान के क्षेत्र में यह किंग की अभूतपूर्व देन समझी जाती है।

किंग के अनुसार, जब कोई विस्तृत भूभाग महादेशजनक बल के कलस्वरूप ऊपर उठता है तो नवीन आधार तल की स्थापना के साथ वहाँ नये अपरदन चक्र श्रीगणेश होता है ये उपप्रदेश से महाद्वीप के अंदर की ओर बढ़ता है। किंग के चक्र का पूर्ण होना अनेक कारकों जैसे स्थानीय नदियों के आकार एवं स्थिति, उत्थान की प्रक्ति तथा शैल प्रकार पर निर्भर करता है।

किंग ने भी डेविस की भाँति अपने अपरदन चक्र की तीन अवस्थाएँ स्वीकार की है. युवावस्था, प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था। किंग के अनुसार युवावस्था में नदियों का विस्तारण प्रधान क्रिया है, जबकि प्रौढ़ावस्था में कगारों का निर्वतन एवं पदस्थलीभवन प्रधान क्रिया है। वृद्धावस्या में निम्न उच्चावचन के साथ केवल मृदा सर्पण प्रधान क्रिया रह जाती है।

युवावस्था-इस अवस्था में उपस्थित नदियाँ आधार तल से पर्याप्त उँचाई पर स्थापित हो जाती हैं। अतः आधार तल पर पहुँचने के लिए तेजी से अपनी तली को काट-काट कर घाटों को गहरा करती हैं और इस क्रिया के फलस्वरूप अधिकतम उच्चावचन का निर्माण इस अवस्था में होता है। इसके पश्चात् वर्षा धोवन तथा अपक्षय द्वारा घाटियों के किनारों के दोनों ढालों का विकास शुरू होता है। ढाल का विकास शैलों की प्रक्ति तथा इन पर कार्य करने वाले भौतिक कारकों की क्रिया-प्रतिक्रिया के फलस्वरूप होता है। नदियों के मार्ग में प्रवण की स्थापना तथा घाटियों के किनारों के दालों का संतुलित विकास युवावस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इसी अवस्था में अनेक अक्रमवर्ती सहायक नदियों की उत्पत्ति होती है, तो भी नदियाँ समस्त उत्थित उपमहाद्वीप का केवल थोड़ा सा भाग ही घेर पाती हैं और अधिकांश शेष भाग अभी भी अपरदित होना शेष रहता है। युवावस्था का काल प्रौढ़ावस्था एवं वृद्धावस्था की अपेक्षा पर्याप्त छोटा होता है। युवावस्था का अंत होते-होते, तली अपरदन प्रायः समाप्त हो जाता है। नदियों द्वारा छोटे-छोटे पैडीमेंट का विकास आरंभ हो जाता है और वे स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। अनेक दोआब इन्सेलबर्ग (Inselberg) में परिणत होने की स्थिति में होते हैं।

प्रौढ़ावस्था इस अवस्था में अपरदन क्रिया घाटियों के वालों पर केंद्रित रहती है। दो नदी घाटियों के बीच का पर्वतीय भाग धीरे-धीरे कटता रहता है और सिकुड़ता जाता है। इसके दोनों ओर स्थित घाटियों के वालों का विकास युवावस्था में हो चुका होता है। नदी पाश्र्व अपरदन द्वारा अपने मार्ग का विकास अवश्य करती है पर इससे समस्त दृश्यभूमि का कंवल थोड़ा सा भाग ही प्रभावित होता है। इस अवस्था में नदियों के मध्य स्थित पर्वत श्रेणियों के कगार समांतर निर्वतन द्वारा पीछे को खिसकते हैं जो इस अवस्था को प्रमुख किया है। पर्वत श्रेणी के पीछे को खिसकने के साथ-साथ इसकी चौड़ाई कम होती जाती है और नदी घाटी के दोनों ओर स्थापित पैडीमंट का विस्तार होता जाता है। इस प्रकार अधिकांश इन्सेलबर्ग इस अवस्था में कट कर समाप्त हो जाते हैं पर इनमें से कुछ इन्सेलबर्ग प्रौढ़ावस्था के अंतिम चरण में कटने से शेष रह जाते हैं जिनकी ऊँचाई आस-पास के क्षेत्र से 300 मी. तक होती है। ये ऊँचे, खड़े भाग पुराने उच्च घरातल का हो शेष भाग हैं जो कटने से बच गई है। इस अवस्था में उच्चावचन का हास हो जाता है। विस्तार करते हुए पैहीमेंट तथा निर्वतन करते हुए कगार के मध्य बाल में एक तीव्र विभंग (Break) होता है जो इस अवस्था को प्रमुख विशेषता है और निवर्तन करते हुए कगार के अंत तक यह ढाल भंगता बनी रहती है। इस विभंग को निक कहते हैं।

वृद्धवस्था इस अवस्था में भी कगार पीछे को निवर्तन करते हैं और पर्वत श्रेणी संकुचित होती यहती है। वृद्धावस्था के अंत में नदियों के मध्य स्थित समस्त पर्वत श्रेणियों कटकर समाप्त हो जाती हैं। पर्व श्रेणियों के स्थान पर चट्टानी धरातल निकल आता है जिसे पैडीमेंट कहते हैं। धीरे-धीरे अनेक अदयों के पैडीपेटे आपस में संयुक्त हो जाते हैं। इस प्रकार अनेक पैडीमेंट के संयुक्त हो जाने से एक निम्न उच्चा-त वाले समतल शैलीय घरातल का निर्माण होता है जिस पर कहीं-कहीं छोटी-छोटी पहाड़ियों जो ‘टने से शेष रह गई हैं खड़ो दिखाई पड़ती हैं। इस समतल धरातल को जिस पर गोलाकार गुंबद की उकल वाली पहाड़ि‌याँ स्थित होती हैं, पदस्थली मैदान (Pediplain) का नाम दिया गया है जिसका प्रस्ताव मेक्शन तथा एंडरसन ने सन् 1935 ई में किया था। समस्त उत्थित प्रदेश कट-केट कर फिर पे आधार तल के समीप आ जाता है, पर इस अपरदन में अघोरदन (Downwearing) का हाथ कम और पश्चरदन (Backwearing) का हाथ अधिक होता है।

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